नयी सरकार और उसी के साथ एक नया गृहमंत्री ,हां शसयद चुनाव खत्म होने के बाद से ही लगातार अमित शाह के मोदी सरकार में रोल की चर्चा ने तेजी पकड़ रक्खी थी और वैसा ही हुआ भी इस बार उन्हें प्रधानमंत्री के बाद गृहमंत्री का पद प्राप्त हुआ और नयी सरकार में गृह मंत्री के रूप में अमित शाह ने कुशलता पूर्वक अपना कार्य भार भी संभाल लिया , लेकिन जैसा कि नई सरकारों के लिए नई चुनातियाँ होती है वैसी गृह मंत्री के लिए भी बहुत सी बाते है , वैसे अगर मौजूदा सरकार की बात करे तो प्रधानमंत्री मोदी के लिए कोई नयी चुनौतियां सामने नहीं आएँगी क्यूंकि पिछली सरकार में भी मोदी जी ने ही ०५ साल व्यतीत किये है ऐसे में उनके पास पूरा मौका रहेगा कि वे अपनी योजनाए जो अधूरी रह गयी है उन्हें आने वाले सालो कुशलता से पूरा करे और जनता की उम्मीदों पर खरा उतरे , लेकिन अमित साहस जो गृहमंत्री है उनके लिए ऐसा कुछ नहीं होगा क्यूंकि उन्होंने देश के गृह मंत्री का पद पहली बार संभाला है , और उन्हें ये भी याद रखना पड़ेगा कि बीते ०५ सालो में गृह मंत्रालय एक कुशल और अनुभवी हाथों में रहा है जिसके परिणाम भी सकारत्मक ही रहे है तो ये तो तय बात है कि उन्हें पिछली सरकार से कहीं ज्यादा अच्छा काम करने के प्रयास करने होंगे
घरेलू मोर्चे पर मोदी सरकार के सामने तीन मुख्य चुनौतियां हैं- कश्मीर, माओवाद और अपनी छवि। वैसे तो रोजगार, महंगाई, आधारभूत ढांचे का विस्तार या संतुलित शहरी विकास जैसे अन्य बहुत से क्षेत्र हैं, जिन पर सरकार से फौरी प्रभावी कार्रवाई की अपेक्षा होगी, पर यहां आशय सिर्फ उन चुनौतियों से है, जिन्हें केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय देखता-भालता है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि देश को अमित शाह के रूप में एक नया गृह मंत्री मिला है, जो अपने पूर्ववर्ती राजनाथ सिंह से कई अर्थों में भिन्न हैं। न सिर्फ राजनीतिक हैसियत में शाह एक हैवीवेट हैं, बल्कि उन्हें नतीजे हासिल करने को आतुर व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। ऐसे में, देखना दिलचस्प होगा कि नए गृह मंत्री का उपरोक्त तीनों चुनौतियों से निपटने का तरीका क्या होगा?कश्मीर पिछले कई दशकों से एक अंधी सुरंग की तरह बना हुआ है। तमाम दावों के बाद किसी को नहीं पता कि इसमें लगातार चलते रहने के बावजूद कभी रोशनी की किरण झलकेगी भी या नहीं? कई दशकों से भारतीय सेना का बड़ा हिस्सा युद्ध की सी स्थिति में वहां जूझ रहा है। परिहार्य राष्ट्रीय संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है और इन सबके बावजूद जिस तरह सैनिक/ असैनिक जान का नुकसान हो रहा है, उन्हें कोई भी सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता। पिछली सरकार का मानना था कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते, इसलिए उसने पाकिस्तान से किसी तरह की बातचीत से इनकार कर दिया था। लेकिन अब इस नई सरकार को सोचना होगा कि इस नीति से कितना लाभ हुआ और क्या इस पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है? हम लाख इनकार करते रहें, पर बिना पाकिस्तान को साथ लिए कश्मीर समस्या का स्थाई हल नहीं निकल सकता। 1947 के बाद दोनों देश अटल बिहारी वाजपेयी और परवेज मुशर्रफ के समय में इस मसले के समाधान के सबसे निकट पहुंच गए थे।अब ये नए गृहमंत्री अमित शाह को ही तय करना है कि वे सख्ती से पेश आकर इस मसले को सुलझा सकते है या फिर कोई नया बात चीत का मुद्दा उठाएंगे , लेकिन जैसे तेवर मोदी सरकार के रहे है उस से बात चीत के आसार तो काफी कम है , वैसे तो पिछली सरकार में कोई कमी महसूस नहीं हुई लेकिन फिर भी जातिगत हिंसा और मोब्लिचिंग की जो कई सारी घटनाएं हुई उन्होंने कई जगह भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सर भी निचे झुका दिया उन्हें खुद भी गोरक्षको को कोसना पड़ा और कई बार उन्होंने इस पर रोक लगाने के भी भरपूर प्रयास भी किये , तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी कई जगह ऐसे मामलो की कठोर शब्दों में निंदा भी की , लेकिन ये घटनाएं कैसे प्लान हुई और इन्हे कैसे अंजाम दे दिया गया इसकी पड़ताल बहुत ज्यादा गहरी नहीं हो सकी , माओवाद या उसके पहले अवतार नक्सलवाद को भी वर्षों हमारी सरकारों ने सिर्फ शांति-व्यवस्था की समस्या माना। उनकी नजरों में इससे छुटकारे का एक ही तरीका था सख्ती या स्थिति बिगड़ जाने पर और अधिक सख्ती। राज्य के खिलाफ हथियार उठाने वालों के विरुद्ध प्रभु वर्गों की सोच तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान से पता चलती है, जिसमें उन्होंने माओवाद को देश के सामने सबसे बडे़ खतरे के रूप में रेखांकित किया था। नए गृह मंत्री शाह के पक्ष में दो बातें जाती हैं- पहली तो यह कि सशस्त्र संघर्ष की माओवाद की अवधारणा अब आखिरी सांसें गिन रही है। एक समय दो सौ से अधिक जिलों में असर रखने वाले इस आंदोलन की उपस्थिति अब एक दर्जन से भी कम जिलों में रह गई है। राज्य की नीति-निर्धारक एजेंसियों ने भी यह मान लिया है कि माओवाद शांति-व्यवस्था से अधिक भूमि सुधार, जंगल के संसाधनों पर उसमें रहने वालों के अधिकार या शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव जैसे मुद्दों की उपज है। शाह की चुनौती माओवाद को एक बार फिर शांति-व्यवस्था की समस्या बनने से रोकना होगा और बचे-खुचे माओवादी काडरों को मुख्यधारा में लाना होगा।नर्ई सरकार और नए गृह मंत्री की सबसे बड़ी चुनौती उस छवि से मुक्त होना है, जो दुर्भाग्य से सरकार की बन गई है। दुनिया भर के लोकतांत्रिक समाजों में मोदी की छवि भारत के अल्पसंख्यकों के दुश्मन जैसी है। एक वैश्विक नेता बनने की लालसा रखने वाले व्यक्ति को इससे मुक्ति का गंभीर प्रयास करना होगा। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में गो-रक्षा या लव जिहाद के नाम पर जो हुआ, उससे पूरी दुनिया में कोई अच्छा संदेश नहीं गया।ऐसे में प्रधानमंत्री को विश्व स्तरीय सर्वश्रेष्ठ नेताओं की सूचि में लाने के लिए गृह मंत्रालय अर्थार्त अमित शाह का रोल बहुत ज्यादा अहम् रहने वाला है
Post a Comment