भारतीय राजनीति का भविष्य

भारतीय राजनीति का भविष्य
भारतीय लोकतंत्र में वोट हासिल करने की सब से तरकीब आरक्षण एक बार फिर से चर्चा का विषय बन गया है इसने राजनतिक खेमे में खलबली जैसी मचा दी है दिल्ली के बाद अब बिहार और पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनावों के लिए सियासी दांव-पेच शुरू हो गए हैं। अभी पिछले काफी लम्बे समय से नागरिकता संशोधन कानून और राम मंदिर मुद्दे को  लेकर काफी लम्बी सियासत चलती रही
और इन्ही मुद्दों के आस पास दिल्ली चुनाव भी निपट गया लेकिन चूँकि अभी और भी प्रदेशो में चुनाव होने है लिहाजा एक बार फिर से भारतीय राजनीति ,देश के पुराने मुद्दे आरक्षण पर आ चुकी है
त्तराखंड की एक नौकरी में प्रमोशन में आरक्षण नहीं मिलने पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर हो-हल्ला मचा है, जबकि इससे आरक्षण की नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ। व्हाट्सएप और सोशल मीडिया से झूठे प्रचार के दौर में तथ्यों को कानूनी नजरिये से समझा जाए, तो अधिकांश विवाद बेमानी साबित होंगे।लेकिन वो कहते ही है कि अफवाहे की रफ़्तार खबरों से कहीं अधिक होती है और यही अफवाहे चुनावी दंगल में कई बार एक मुहीम बनकर सामने आती है
विधानसभा और लोकसभा में वंचित वर्ग को आरक्षण देने के लिए संविधान में कुछ समय के लिए  प्रावधान किए गए थे। लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण और प्रमोशन के लिए सांविधानिक व्यवस्था के बजाय सिर्फ अपवाद स्वरूप प्रावधान किए गए, जिसके अनुसार नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। अनुसूचित जाति यानी एससी वर्ग के लिए 15 फीसदी और अनुसूचित जनजाति यानी एसटी वर्ग के लिए 7.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। राम मंदिर के कमंडल आंदोलन के जवाब में वीपी सिंह ने मंडल का दांव खेलकर अन्य पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी। इन सबके अलावा महिला, दिव्यांग, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण से, यह मुद्दा, वोट बैंक की राजनीति का सबसे निर्णायक दांव बन गया है।
आरक्षण के लाभ को वंचित वर्ग तक पहुंचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों से कई नियम बने हैं। जैसे, आरक्षण का लाभ जिन्हें मिल गया या आर्थिक तौर पर सशक्त लोगों को क्रीमी लेयर मानते हुए उन्हें आरक्षण की परिधि से बाहर रखना। आरक्षण के लाभ के मूल्यांकन के लिए सामाजिक-आर्थिक जनगणना और अध्ययन करना। आरक्षण से प्रशासनिक कार्य-कुशलता प्रभावित नहीं हो, इसे सुनिश्चित करना। इन तीन नियमों का सही तरीके से पालन नहीं होने से 21वीं सदी के युवाओं में खासा आक्रोश है।और वो आक्रोश इसीलिए है कि ये कैसी व्यवस्था है कि आरक्षण लागू हुए एक अरसा बीत गया लेकिन स्थिति जस की तस जैसे जैसे समय बीता वैसे वैसे आरक्षण की परिधि भी बढ़ती चली गयी पहले तो सिर्फ अतिपिछड़ों को ही आरक्षण मिला थे लेकिन फिर पिछडो को भी आरक्षण मिला और अब जो सवर्ण है वे भी गरीबी के आधार पर आरक्षण की बात कर रहे है यह बात तो एक मंथन करने योग्य है कि देश में ऐसा हो क्यों रहा है जैसे जैसे समय बीत रहा है लोग पिछड़े और गरीब होते जा रहे है और अगर यह सच्चा तो इस आरक्षण व्यवस्था पर ही ढेरो सवाल उठते है और अगर यह झूठ है तो फिर तो वर्तमान आरक्षण व्यवस्था पर ही सवाल उठते है
हम जब विकास की बात करते है तो लोगो को बांटकर कोई सहायता क्यों दी जा रही है क्या ये जरुरी है जो भी योजनाए आये जातिगत ही है ,क्या बूथ स्तर पर जिस तरह वोटों का बंटवारा हो सकता है उसी तरह क्या ये जांच परख नहीं हो सकती है कि किस योजना कि किसे जरुरत है ? और किसे योजना के अंदर किया जाना चाहिए और किसे योजना के बाहर किया जाना चाहिए ,
ऐसा किसी एक दल या फिर एक चुनाव  के साथ नहीं है ,अपितु प्रधानमंत्री के चुनाव से लेकर प्रधानी के चुनाव तक लगभग सभी दलों को इस बात की जानकारी होती है कि किस घर से किसे वोट जाइएगा लेकिन जब यही दल चुनाव जीतकर सत्ता में आ जाते है तो फिर आखिर क्यूंकि वे जातिगत और धर्म के आधार पर ही योजनाओ को हवा देते है
अब बदलते समय के साथ ये बहुत जरुरी है कि भारतीय राजनीति का स्तर भी बदले , अब समय है कंधे से कन्धा मिलकर आगे बढ़ने का
आज कोई किसी भी धरम या फिर जाति में जरुरत मंद हो सकता है ऐसे में जातिगत आरक्षण पर इतनी ज्यादा राजनैतिक दिलचस्पी अच्छी नहीं कि विकास पीछे छूट जाए और बस जातिगत राजनीति  ही भारतीय लोकतंत्र का भविष्य बनकर रह जाए 


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