गाँव आज भी तुम्हे ढूंढता है


मिंकु मुकेश सिंह


गाँव आज भी तुम्हे ढूंढता है
अपने गाँव का वो दालान, पलान और उन पगडंडियों को कौन छोड़ना चाहता है! जवाब है-कोई नही...
तेज आंधी आते ही तुम दौड़ जाते थे आम का आम और जामुन बीनने, ये भी नहीं सोचते थे कि नीचे कोई पतलून-पैंट पहने भी है या नही.. 
तुम दिन भर अपने सहपाठियों और साथियों के साथ खेलते रहते...बिना थके।
गाँव के पोखरे-तालाब में सबसे लंबी छलांग कौन लगायेगा इस बात पर शर्त लगती थी, तुम्ही थे जो दिन भर गुल्ली-डंडा और कंचे खेलते थे..
चोर-सिपाही खेलते-खेलते कब शाम हो जाती थी ये कभी पता ही नही चलता था।।
चंदन,बब्लू, गुड्डू, मोहित और संगीता, रिंकी, पिंकी और गुड़िया के साथ तुम्हरा कितना मनुहार था, एक साथ खेलना,पढ़ने जाना, लड़ाई-झगड़े,मारपीट करना..सब छूट गया न?
सबका एक सा परिवार, एक सा व्यवहार, एक सा खानपान मतलब हर तरह से समरूपता..
अब कौन कहा है, किसी हालत में है और किसकी जिंदगी में क्या चल रहा है कुछ पता नही....
गाँव की वो रूहानी शाम, वो स्कूल और बेपरवाह सी जिंदगी...
कागज के पन्नो पर लिखा तुम्हारा इश्क, उसको देने की जद्दोजहद, उसके जवाब का इंतजार, उसके लिए दिन भर आवारा बन कर घूमना...थोड़ा ही सही पर कुछ मुहहबत तो थी तुम्हारे अंदर..
माँ-बाप की परिस्थितियों ने तुम्हे खुदगर्ज़ और जिम्मेदार बना दिया, अंततः सबकुछ पीछे छोड़कर उस अनजाने शहर की तरफ भागना ही पड़ा...
ज़िंदगी में आगे बढ़ना मजबूरी है पीछे छूट जाना नियति. मजबूरी आपको बड़ा आदमी बना सकती है. नियति आपको वहीं रख सकती है जहां आप रह जाते हैं. लेकिन बड़े होने में वो आनंद कहां जो रुके होने में हैं. बुद्ध रुके रहे तो बुद्ध कहलाए. हम लोग चलते रह गए. बुद्ध तो क्या बुद्धिमान भी नहीं हो पाए.
मजबूरी में चले थे आज भी मजबूर हैं सो चल रहे हैं जब सूकून होगा तो रुकेंगे और बड़े बुजुर्ग कहते हैं. सूकून मिल जाए तो ज़िंदगी किस काम की.
तुम पहले सोचते थे कि नौकरी मिलेगी तो सब कुछ ठीक कर दूंगा आज भी सोचते हो कि सैलरी थोड़ी बढ़ जाएगी तो सब सेटल कर दूंगा...सच ये हसि की तुम पहले भी बच्चो की तरह सोचते थे आज भी उसी हिसाब से सोच रहे हो...
सैलरी,नौकरी तुम्हे ताउम्र आराम और आनंद नही दे सकती..
तुम्हे भी याद आएगा कि एक दोस्त जिसके साथ दुपहरिया में कच्चे आम तोड़ा करते थे और गाँव के उस छोर पर घंटों बैठकर उसको घंटों निहारा करते थे.
तालाब के पानी में पत्थर फेंक पर अपनी सपनों की रानी को याद किया करते थे और जब घर में बाइक आई तो दोनों उस पर बैठ कर गाँव की एक गली के खूब चक्कर काटा करते थे.



घर आये मेहमानो की मोटरसाइकिल की चाभी लेने के बहाने खोजते और उनकी खातिरदारी इस स्वार्थ में करते कि प्लेट में बची हुई मिठाई और नमकीन खाने को मिलेगा...
सब छोड़ो! माशूका को पता नहीं होता था और उसके लिए मार पीट करने पर आमादा होने पर यही दोस्त काम आता था. बिना किसी सवाल जवाब के. उसका एक ही धर्म था..मैंने जो कह दिया बस वही सही है. उसके मामले में मेरा भी यही धर्म था. उसने जो कहा वही सही. मां बाप भाई बहन सब बेकार.
ये खूब चलता है कुछ साल. नए कपड़े, बाइक, लड़कियां, दोस्ती वाली फ़िल्में...फिर या तो एक लड़की आती है या फिर ज़िंदगी आती है और रास्ते खुद ब खुद बदलते हैं.
तुम मजबूर थे गाँव छोड़ना को और उसकी नियति थी वहीं रुकना. चार पांच साल तक संपर्क रखा फिर मैं बड़ा आदमी हो गया और वो इंसान ही रहा. बड़े शहर के शब्दों में बैकवार्ड और यू नो विलेजर्स पीपुल.
गाँव मे कितना ठहराव है न! और शहर कितना तेजी से भाग रहा है...



चन्दन... आज भी बम्बई से जब गाँव आता है तो उसे वापस जाने का मन नहीं करता है..उसकी माँ जब आचार का डिब्बा,घी,दाल और चना उसके लिए बांधने लगती है तो चंदन अंदर ही अंदर घबराने लगता है...वो जाना नही चाहता....
माँ-बाबू जी चाहते हुए भी अपने चंदन को रोक नही सकते...चंदन अपने दृढ़ होने का स्वांग रचता है कठोर बनता है और पैर छूकर बिना नजर मिलाए आंखे भरकर चला जाता है...खैर.....
पिछले दिनों वो भी गाँव आयी थी...चली गयी.....उससे मिलना एक संयोग था, उसके बालो में मेरी उंगलियो के उलझने से शुरुआत हुई,दिलो की अदला-बदली हुई,जज्बात जगे,मुहब्बत हुई और एक दिन सपनो की काल्पनिक इमारत ढह गई....अब टूटा दिल गाना गाता है "हम वफ़ा कर के भी तन्हा राह गए, दिल के अरमा आँसुवो में बह गए"उसका जाना कभी अच्छा नही लगा....पर जाना उसकी मजबूरी थी चंदन की तरह...गाँव अकेला रह गया,अब छठ-दीपावली-होली में फिर से इंतजार करेगा उसके आने का.....
गाँव जैसा धैर्यवान होना आसान नही है....


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