युवा बेरोजगार

युवा बेरोजगार



मिंकु मुकेश सिंह की कलम से..


युवा बेरोजगार
बेरोजगारी कवन चीज हौ, जानत हौ....
मोदी जी अउर राहुल गाँधी के कबहु दिल्ली के मुखर्जी नगर,इलाहाबाद के सलोरी,बघाड़ा,कटरा,अल्लाहपुर वाला इलाका घुमा दिहा...बेरोजगार के जिनगी कइसन होले जान जाइ लोग..
गरीबी और बेरोजगारी जैसे लगता है एक दूसरे से परिणय कर बैठे है , ससुरा हालत ये है कि इनमें कभी तलाक ही नही होता..
बेरोजगार वही है जो गरीब है या फिर इसका उल्टा समझ ले।
बाबू जी जब दोपहर में फोन कर पूछते है?
बेटा कवनो फारम-वोरम निकला है, इधर कउनो परीक्षा दिए हो कि नही?
तो लगता है कि किताब को लस्सी बनाकर गटक जाऊ और नौकरी लेकर बाबू जी के हर सपने को पूरा कर दूं?
बाबू जी भी का करे, एक बहिन अभी बी.ए. करके घर पर बैठी है, बाबू जी लड़का खोजने जाते है तो लोग बहिन की लंबाई नापते है,उसका रंग पूछते है और अंत मे कहते है कि हमको बीटीसी की हुई लड़कीं चाहिए।
बेरोजगारी की परिभाषा एक मध्यवर्गीय युवा से बेहतर कोई नही बता सकता है।
उम्र बुढ़ापे की तरफ तेजी से ढल रही होती है फिर भी वो मां-बाप के बदौलत अपना गुजर-बसर कर रहा होता है? अपनी भविष्य की चिंता लिया युवा नौकरी पाकर सब कठिनाइयों से उबरना चाहता है, पर यह कम्बखत नौकरी है की आने की नाम ही नहीं लेती! गाँव के शानदार वातावरण को छोड़कर शहर के उबाऊ भीड़ और आवाज चीरकर रख देने वाली शोरगुल के भुलभुलैये में आकर वो युवा कहीं गुम सा हो जाता है| जैसे-तैसे और बेढंगे से बने लॉज और सड़ांध मारती गलियों में गुजर-बसर करना कितना कठिन है बताया नहीं जा सकता, वहीँ उसकी कीमत न जानने में ही हमें ख़ुशी मिलती है| पारिवारिक और सगे-सम्बन्धियों के माहौल में पलने वाला युवा एकाएक एकांत में डाल दिया जाता है, उसके ऊपर मां-बाप, भाई-बहन न जाने कितने उस पर अपने उम्मीदों और आकांक्षाओं का बोझ लाद देते हैं, कुछ बनने, कुछ कर दिखने के सपने इतने सारे बोझों के तले रेत की महल के समान ढहने लगता है।
कभी उसे घर की याद सताती है तो कभी दोस्तों की। किचन जितने बड़े कमरे में उस युवा की प्रतिभा मोतियों की तरह बिखर रही होती है। तकिये में मुंह छुपाकर रोने का दर्द जिस दिन इस देश के नायक जान जायेंगे, यकीन मानिए उनकी आंसू निकल पड़ेगी।



छुप-छुप कर घर की याद में रोना और अगले ही पल कुछ बनकर सब बेहतर कर देने के हौसले से उसमें हिम्मत आ जाती है और वो फिर से पढने लगता है, उसे रटने लगता है।
उसके दोस्त उसे शहर लाकर किसी अच्छे से कोचिंग में नामांकन करा देता है और उस युवा के उम्मीदों-हौंसलों में अच्छे सरकारी पदों के बारे में बताकर पंख लगा देता है। जितने वक्त वो पढने में बिताता है उससे ज्यादा वक्त उसे खाना बनाने व उसे धोने-साफ़ करने में लगता है।
लॉज से कोचिंग और कोचिंग से लॉज उसकी रोजमर्रा की दिनचर्या हो जाती है। मनोरंजन के नाम पर तो अब मोबाइल में फिल्म डाउनलोड करके भी देख लेता है, लेकिन तीन-चार साल पहले वही युवा किसी दूकान के कोने पर लगे टीवी में गोविंदा या भोजपुरिया डांस देखकर खुश हो जाता था।
भीड़ बढती तो दूकानदार उसे अपने तरफ मोड़ लेता था,उस युवा को जब भी घर से फ़ोन आता है तो उसे फिर से पापा के उसके पढने के लिए जुटाए गए पैसों की अहमियत समझ आने लगती है और वह मनोरंजन छोड़कर फिर से पढने लगता है।
अब तो हालात काफी बदल गए हैं, टेक्नोलॉजी उन्नत हो रही है और युवा सोशल साइट्स की आदतों के शिकार हो चुके हैं। शाम को कम सब्जी खरीदकर वो युवा नेट पैक भरवाने लगा है, नौकरियों की जानकारियां अपडेट रखने लगा है। सरकार एक ही फैसले में नेट पैक पर टैक्स लादकर महँगी कर देती है पर शायद उसे इस युवा की तकलीफों का तनिक भी अंदाजा नहीं, ससुरा के कोचिंग वाले भी अब अपडेट व्हाटसअप पर भेजने लगे है...सरकार बड़ी आसानी से नौकरियां रोक देती है और घाटा कम करने की नाकाम कोशिश करती है।
सरकार एक बार 10 लाख चपरासी की वेकेंसी निकाले मेरा दावा है प्रत्येक सीट पर बीटेक और हायर एजुकेशन वाले न बैठ जाये तो कहना।



एक बेरोजगार युवा जब 25 वर्ष से ज्यादा उम्र का होने लगता है तो उसके हौसलों के पंख ढीले पड़ने लगते हैं| रेलवे जैसी बड़ी आकांक्षाओं वाली सेक्टर के 18 हज़ार सीट के लिए 1 करोड़ से ज्यादा आवेदन की खबर उसे तोड़कर रख देती है। एसएससी और रेलवे जैसे आयोगों की किसी भी पद पर नौकरी करने की चाहत रखने वाले युवा, प्रतिभा होने के वाबजूद भी इस देश के कुछ गद्दारों की वजह से उसका अधिकार छीन लिया जाता है और उसे अयोग्यों को दे दिया जाता है। मुश्किल ये है की हम युवा कभी आईएएस या आईपीएस बनने के सपने देख भी नहीं सकते। क्लर्क स्तर के परीक्षाओं की तैयारी करने में उसके अभिभावकों की माली हालत दयनीय हो जाती है।
एक बेरोजगार युवा को सबसे ज्यादा तकलीफ समाज और परिवार के लोगों द्वारा दिए गए ताने से होता है| वह ताने के डर से किसी परिवार के यहाँ जाना नहीं चाहता। नतीजा, वह भारतीय संस्कृति और उसके तौर-तरीकों से धीरे-धीरे कटता चला जाता है सिर्फ बेरोजगारी की वजह से। राजनीति में इन युवाओं की दिलचस्पी पहली बार काफी सक्रिय तौर पर देखी गई जब युवा मोदी की रैलियों में खम्भों पर चढ़कर मोदी-मोदी के नारे लगाता था।
खैर....चुनाव आ रहा है खुश हो लीजिये काहे की कवनो न कवनो पार्टी के घोषणापत्र में नोकरी त रहबे करी...


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