विकास और प्रकृति 


विकास और प्रकृति 
ये बेहद शर्मनाक और पूरी मानवता को जलील करने वाला है कि हम सब पृकृति के लिए एक एहसान फरामोश है हम वो इंसान है जिसने जब चाहा जैसे चाहा प्रकृति का भरपूर इस्तेमाल किया और उसके बाद उसे वापिस करने के बजाय उसका प्रतिकार ही करते चले गए है और आज भी हम भरपूर प्रयास में लगे है कि हम बस विकास के चरम पर किसी तरह पहुँच जाए ,और ये बात तो सब से ज्यादा मूर्खतापूर्ण है कि हम अच्छे से जानते है कि बिना पर्यावरण हम नहीं जी सकेंगे लेकिन फिर भी पर्यावरण को छोडकर ,उसी विकास के पीछे पड़े है जो पर्यावरण  पर ही पूरी तरह निर्भर है जीवन की दृष्टि से पर्यावरण मानव के लिए सर्वोच्च जरुरत है। जल, जंगल और जमीन तीनों उसके प्रमुख आधार हैं। विकास के मौजूदा मॉडल की विफलता यह कि जीवन के इन तीनों आधारों को प्रदूषण ने लील लिया है।आज देश की आबादी का बड़ा हिस्सा स्वच्छ व सुरक्षित पानी, शौचालय और शुद्ध हवा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित है। पर्यावरण पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है। इस दिशा में समाज और सरकार को स्वच्छता और वृक्षारोपण को एक जनान्दोलन बनाने की तरफ सोचना होगा, जिसके लिए समाज की सहभागिता होना पहली और आवश्यक शर्त है। सामुदायिक सहभागिता के जरिए स्वच्छता की संस्कृति विकसित करने की जरुरत है, जिसके लिए कूड़े-कचरे को फिर से उपयोग में लाने की ठोस योजना का होना जरूरी है।इससे बड़ी संख्या मेंं रोजगार तो पैदा होगा ही, हमारे गांव, शहर और कस्बें रहने योग्य भी बनेंगे। इसी तरह स्वच्छता को जल प्रबंधन से जोड़ना जरुरी है, जिसमें सीवर-सफाई और जल के पुनर्चक्रण द्वारा जल स्त्रोतों की सफाई और उससे औद्योगिक एवं कृषि उपयोग का काम भी हो सकेगा।स्वच्छता स्थानीय मुद्दा है। इसलिए इसके लिए टॉप डाउन प्रणाली उपयुक्त नही है। बल्कि इसके लिए समुदाय आधारित दुष्टिकोण अपनाना ही समझदारी है। समाज को पर्याप्त अधिकार और संसाधन सम्पन्न बनाना जरुरी है। कोई भी नीति या नियम प्रभावी परिणाम तभी देता है जब समाज की सहभागिता उसमें हो। पर्यावरण ऐसा मामला है जिससे जीवन सीधे जुड़ा हुआ है।पर्यावरण की सेहत के लिए दो कामों का निरन्तर जारी रहना बेहद जरुरी है, पहला स्वच्छता और दूसरा वृक्षारोपण। स्वच्छता के अभाव में हमें स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरे झेलने पड़ते हैं।
ये किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहींं रहते हैं। वैश्वीकरण के दौर में दुनिया एक दूसरे से बहुत जुड़ गई है। हम सब परस्पर निर्भर स्थानों में रहते हैं। पर्यावरण का क्षरण बड़ा संकट है। इस चुनौती का सामना सामुदायिक सहभागिता के जरिए ही संभव है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण अहम पहल है, क्योंकि जीवनदायनी ऑक्सीजन का एकमात्र स्त्रोत वृक्ष ही हैं। मानव जीवन वृक्षों पर ही निर्भर है। यदि वृक्ष नहीं रहेंगे तो धरती पर जीवन संकट में पड़ जाएगा।
किसी भी राष्ट्र या समाज अथवा संस्कृति की सम्पन्नता वहां के निवासियों की भौतिक समृद्धि में निहित नहीं होती है बल्कि वहां की जैव विविधता पर निर्भर होती है। भारतीय वन सम्पदा दुनिया भर में अनूठी एवं विशिष्ट है। हमारी संस्कृति, रीति-रिवाज, धर्म, तीज-त्योहार सब प्रकृति पोषित हैं। असल संकट यही है कि विकास के आधुनिक मॉडल ने सब कुछ उजाड़ दिया है। जंगल ही थे जो जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों को कम करने की क्षमता रखते हैं, जिसके लिए वृक्षारोपण अभियान जारी रहना जरुरी है। इसी से जलवायु में सुधार संभव है। पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से कार्बन-डाई आक्साइड को कम कर ऑक्सीजन देने में महती भूमिका में हैं। यह प्रक्रिया प्रकृति में संतुलन बनाए रखती है। जंगल ही हमें स्वच्छ जल और स्वस्थ मृदा के साथ-साथ स्वच्छ पर्यावरण भी प्रदान करने का आधार प्रदान करते हैं।हम ये कैसे भूल सकते है कि हम सब प्रकृति के सामने शुन्य से ज्यादा और कुछ भी नहीं है ,हम कुछ भी प्रकृति से अच्छा निर्मित नहीं कर सकते ,हम प्रकृति के एक अंश की तुलना भी खुद से नहीं कर सकते ,हम पिने का पानी नहीं बना सकते , हम वृक्ष अचानक से उगाकर बड़े नहीं कर सकते , हम स्वच्छ वायु नहीं बना सकते हम बारिश नहीं ला सकते ,हम भूकंप आने से नहीं रोक सक्ते है ये सवाल पूरी की पूरी मानवजाति से है जब हम प्रकृति के जैसा कुछ कर ही नहीं सकते है तो फिर हम क्यों प्रकृति को बरर्बाद करते चले जा रहे है आज ये सोच का विषय होना चाहिए कि अब तो बस करो अब जंगलो पर जुल्म बस करो ,आवासीय मकानों के नाम पर ही सही या फिर खेती के नाम पर ही सही हम कब तक जंगलो का नाश करते चले जाएंगे आज के समय में हम बिना पर्यावरण के कितनी ज्यादा गंभीर स्थिति को जन्म दे सकते है ये किसी को भी समझने की जरुरत नहीं ,वैसे तो बहुत से कानून बने है पेड़ो की कटाई को लेकर ,लेकिन अब समय आ गया है कि सरकार पेड़ो की जिम्मेदारी हर मनुष्य को दे और ये उनकी नैतिक जिम्मेदारी हो कि वे अपने द्वारा लगाए पेड़ो की जीवनपर्यन्त रक्षा भी करेंगे ,तभी हम कुछ अलग कर सकते है और अपने सब से करीबी मित्र प्रकृति को अपने करीब रख सकते  है 
अंकित सिंह "खड्गधारी "


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