केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री श्री भूपेंद्र यादव ने आज कॉप 27 में प्री 2030 महत्वाकांक्षाओं पर मंत्रियों की उच्च स्तरीय गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लिया। सम्मेलन में उन्होंने कहा-
“"शुरुआत में, मुझे अपने कुछ विचारों को व्यापक अर्थों में प्रस्तुत करने दें उसके बाद मैं विस्तार से बात करूंगा
हमारे गोलमेज सम्मेलन का शीर्षक ही ठीक से समझा जाना चाहिए। प्री-2030 को स्पष्ट किया जाना चाहिए। प्री- 2030 समय में कितना पीछे जाता है? हमारे विचार में, इस अर्थ में प्री-2030 का विचार प्री-2020 से अलग नहीं है। यह किसी दिए गए वर्ष से पहले का ऐतिहासिक कुल उत्सर्जन है जो जिम्मेदारी को मापता है। इसलिए हमारे विचार विमर्श में प्री-2020 जिम्मेदारियों को शामिल होना चाहिए और ये भी शामिल होना चाहिए कि क्या 2020 से पहले की प्रतिबद्धताओं को पूरा किया गया है। यह 2020 से शुरू नहीं हो सकता।
हमारा मानना यह है कि अनुबंध-1 के पक्षों ने अपनी कुल और साथ ही अलग अलग प्री- 2020 प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं किया है। सही अर्थों में सबसे वास्तविक सवाल 2030 तक के कुल उत्सर्जन का है। इसलिए 2030 से पहले की महत्वाकांक्षाओं को इस संदर्भ में मापा जाना चाहिए कि क्या देश पिछले कुछ समय और भविष्य दोनों को ध्यान में रखते हुए कार्बन बजट की अपनी उचित हिस्सेदारी में बने हुए हैं। इस वैज्ञानिक कसौटी से कुछ विकसित देशों को 2030 और 2050 से पहले भी नेट जीरो पर पहुंचना चाहिए जो वास्तव में बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं है। इसलिए, यहीं से हमें महत्वाकांक्षाओं के अवसरों के बारे में बात करनी चाहिए।
- महत्वाकांक्षा के अवसर
- ) महत्वाकांक्षा के अवसर अलग अलग पक्षों में अलग-अलग होते हैं। यह हमें पहचानना चाहिए। यदि नहीं, तो जिनके पास देने के लिए बहुत कम है, उनसे महत्वाकांक्षा बढ़ाने के हमारे प्रयासों का परिणाम केवल निष्क्रियता ही होगा। विकसित देशों को नेतृत्व करना चाहिए - आखिरकार उनके पास धन और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण दोनों का बड़ा हिस्सा उपलब्ध है। सम्मेलन और पेरिस समझौता दोनों ही इसे मान्यता देते हैं, लेकिन हमने पर्याप्त कार्रवाई नहीं की है।
- ) दूसरा, बढ़ती महत्वाकांक्षा के लिए लोगों के द्वारा कार्रवाई की आवश्यकता होती है। इसे अकेले बाजारों पर छोड़ देने से मदद नहीं मिलेगी। बाजार सामान्य समय में अच्छी तरह से काम नहीं करते हैं, लेकिन संकट के क्षणों में या तो कार्य नहीं करते हैं या बहुत असमान रूप से कार्य करते हैं। हम इसे विकसित देशों में ऊर्जा संकट के साथ देखते हैं।
- ) विकासशील देशों के लिए, सार्वजनिक कार्रवाई में जलवायु वित्त और प्रौद्योगिकी के सार्वजनिक स्रोत शामिल हैं। ये आवश्यक हैं।
- ) तीसरा, महत्वाकांक्षाओं के लिए सही क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए। महत्वाकांक्षा के नाम पर उत्सर्जन में कमी लाने के लिए छोटे किसानों को निशाना बनाना एक गंभीर भूल होगी। भारत की तरह, विकासशील देशों में, यदि हम घरेलू और सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था को लक्षित करते हैं, और बायोमास की जगह स्वच्छ ईंधन के उपयोग को बढ़ाते हैं, तो हम कार्बन में कमी को बढ़ावा देने में कुछ महत्वपूर्ण बढ़त प्राप्त कर सकते हैं।
- बाधाएं
- ) बाधा शब्द का अर्थ कुछ ऐसा है जिसे पार करना होगा और उसके बाद मामले सुचारू रूप से आगे बढ़ेंगे। विकासशील देशों के लिए तेजी के साथ लो-कार्बन डेवलपमेंट महत्वाकांक्षा की राह है। यह एक सतत प्रक्रिया है। इसमें समय, मानव और वित्तीय संसाधन लगता है और इसमें लगातार जारी रहने वाला आर्थिक विकास जरूरी है। इसलिए, यह केवल बाधाएं नहीं हैं, बल्कि कार्बन में कमी को आगे बढ़ाने के लिए तीनों स्थितियों को लगातार बने रहना होगा।
- ) यहां विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन मुहैया कराने में नाकामी एक बहुत बड़ी असफलता है। यदि लो-कार्बन डेवलपमेंट के लिए आवश्यक समय की पहचान नहीं होती है तो विकासशील देशों से महत्वाकांक्षा का आह्वान करना अर्थपूर्ण नहीं है। दुर्भाग्य से, हर दशक के साथ, हर नए समझौते के साथ, हर नई वैज्ञानिक रिपोर्ट के साथ विकासशील देशों से अधिक से अधिक कार्रवाई की मांग की जाती है। यदि लक्ष्य लगातार बदले जाते हैं, तो परिणाम नहीं मिलेंगे बल्कि केवल शब्द और वादे ही मिलेंगे।
- पेरिस एग्रीमेंट अपडेट मैकेनिज्म
- ) यह एक और उदाहरण है जहां लक्ष्य लगातार बदले जाते हैं। पेरिस समझौते का कार्यान्वयन अभी शुरू ही हुआ है, और वह भी कोविड की वजह से खोए समय के बाद। पहला ग्लोबल स्टॉकटेक चल रहा है और अगले साल समाप्त होगा। तो पेरिस समझौते के प्रावधानों की पर्याप्तता के बारे में बात शुरू करने की क्या जरूरत है? बेशक, अनुच्छेद 4 के पैरा 5 के तहत कार्यान्वयन के साधनों का प्रावधान महत्वाकांक्षा बढ़ाने में मदद करेगा। लेकिन यह भी सवाल है कि क्या तकनीक उपलब्ध है और तैयार है और क्या इसे किफायती दरों पर इस्तेमाल किया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं किया जा सकता है, लेकिन महत्वाकांक्षा का बोझ बढ़ाया जाता है, तो विकासशील देशों में विकास प्रतिबंधित हो जाएगा।
ख) और फिर भी सवाल विकासशील देशों से ही पूछे जा रहे हैं। क्यों? अनुच्छेद 4, पैरा 11 विकसित देशों के लिए पर्याप्त है। असली मुद्दा यह है कि जरूरी अतिरिक्त प्रयास नहीं हो रहे हैं । यदि प्रयास नहीं होंगे, तो नए समझौते या नए संशोधन या नए प्रोटोकॉल समस्या का समाधान नहीं करेंगे।
- जस्ट ट्रांजिशन
- ) विकासशील देशों में जस्ट ट्रांजिशन लो-कार्बन डेवलमेंट को लागू करने के बारे में है। यह किसी भी क्षेत्र में कार्बन मुक्ति की जल्द शुरुआत के बारे में नहीं हो सकता है, हालांकि भविष्य में किसी समय तकनीक के संभव होने पर विभिन्न क्षेत्रों को कार्बन मुक्त करना होगा। यह 2030 तक एसडीजी लक्ष्यों को हासिल करने की प्राथमिकता और बाद के विकास दोनों के लिए हानिकारक होगा।
- ) ऊर्जा सुरक्षा के लिए जीवाश्म ईंधन प्राकृतिक संसाधनों के तर्कसंगत उपयोग का हिस्सा बना रहेगा। जस्ट ट्रांजिशन के लिए समर्थन नवीकरणीय ऊर्जा के इस्तेमाल और नवीकरणीय प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए समर्थन में बढ़ोतरी करेगा और जिसका अर्थ है कि ऐसे विकास और ऐसी प्रौद्योगिकियों की तैनाती की लागत का सामना करना।
- गोलमेज बैठक की उपयोगिता
- ) इस तरह की बैठकें, ऐसी गोलमेज चर्चाएँ एक दूसरे के विचारों के बारे में हमारी समझ का पता लगाने उन्हे बढ़ाने और सहयोग के रास्ते बनाने के लिए उपयोगी हैं। लेकिन हमें कार्रवाई के लिए आगे के रास्ते तलाशने होंगे। कॉप में कार्यान्वयन के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।
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