प्राइवेट स्कूलों का गोरखधंधा

 

देश भर में निजी स्कूलों में कॉपीराइट के नाम पर बड़ा खेल चल रहा है। बाजार से अधिक दामों में लूट मचा रखी है। प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के गार्जियन प्राइवेट स्कूलों की परेशानी से परेशान है। अगर बच्चे स्कूल की जगह से किताबें खरीद लें तो उनके बच्चों के नाम काटने की धमकी दे दी जाती है। निजी स्कूल की किताबें ,  टाई बेल्ट से लेकर स्कूलों तक में बिकती रहती हैं। कुछ स्कूल जांच की लपेट में न आएं इसके लिए दुकान सेट किए जाते हैं ,  एक दुकान के अलावा उनके स्कूल में चलने वाली किताबें दूसरी किसी दुकान में नहीं मिलती हैं। बड़े निजी स्कूलों की चमक दमक को देखकर मध्यवर्गीय परिवार के लोग भी अपने बच्चों का नामांकन कराने के लिए बेताब रहते हैं। वे नामांकन के नाम पर भारी भरकम फीस देने एवं पुस्तकों का बंडल खरीदने पर भी मजबूर हो रहे हैं। इन गानों में नामांकन के बाद उनमें खुली किताबों से हजारों रुपये मूल्य की कॉपी किताब भी द गार्जियन को खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। किसी भी माता-पिता के लिए ,  यह एक ऐसा पुराना जख्म है ,  जिसे हर साल कुरेदा जाना तय है। पता नहीं सरकारें क्यों इस महामारी जैसे मुद्दे पर ,  अभियान चलाकर ऐसे स्कूलों की मान्यता रद्द नहीं करती।  

 

-डॉ ​ सत्यवान सौरभ

 

शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में खुले निजी कागजात में नामांकन के साथ ही स्कूल में खुले कागजात में ही किताब और कॉपी दी जाती है। जिसे पाने के लिए कई की लंबी कतारें लगती हैं। लैपटॉप को स्कूल के ही दुकान से कॉपी ,  किताब ,  पेंसिल ,  कटर यहां तक ​​कि किताब और कॉपी में रखने वाले बर्तन भी स्कूल से ही खरीदना पड़ रहा है। स्कूल प्रबंधन द्वारा पुस्तक के साथ-साथ ड्रेस आदि की बिक्री की जाती है। कई स्कूलों द्वारा बजाप्ता दुकान सजाई जाती है जिसमें बच्चों की गंजी ,  चड्डी ,  बोतल एवं बैग तक बेची जा रही है। इन स्कूलों में बच्चों के परीक्षा परिणाम मिलते ही नई कक्षा के लिए ड्रेस ,  किताब ,  कॉपी और अन्य स्टेशनरी के सामान खरीदने का दबाव दिया जाता है। जिसे मजबूरी में खरीदना पड़ता है। हर साल पाठ्यक्रमों में मामूली बदलाव करके किताबें बदल दी जाती है। जिससे पुरानी पुस्तकों से दूसरा बच्चा पढ़ न सके। ऐसा ही नहीं कि कुछ स्कूलों द्वारा बाजार के कुछ निश्चित स्टोर से मिलीभगत करके उनके द्वारा स्कूल के ड्रेस व किताबें ,  कॉपी आदि की बिक्री की जाती है। इनमुर्चों द्वारा स्कूल प्रबंधन को मोटी रकम दी जाती है। हालांकि सरकार द्वारा स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि स्कूलों को किताब की लिस्ट विद्यार्थियों को देना है। इतना ही नहीं री-एडमिशन नहीं करना है। लेकिन इन नियमों का उल्लंघन करते हुए प्राइवेट स्कूल प्रबंधन अपनी गलती मान रहे हैं।

 

निफार्म जैसा हो ,  किताबें जैसी हों ,  ठीक है लेकिन नोट बुक रजिस्टरों में इतनी ब्रांडिंग क्यों। इस प्रश्न के उत्तर में भी कुछ घरों का स्पष्ट उल्लेख किया जाएगा।  350  रुपए का रजिस्टर मार्केट में वही रजिस्टर  60  रुपए का मिल रहा है। लेकिन लोगो और ब्रांडिंग के कारण उन्हें अनिवार्य रूप से पंजीकृत कराना पड़ा है। स्कूल में प्राइमरी के बच्चों को क्या स्टेशनरी चाहिए ,  सोचिए। लेकिन स्कूल की स्टेशनरी में भी एकरूपता जरूरी नहीं है। जैसे स्कूल अक्सर अपनी नीली पीली कॉपियाँ देते हैं। उन पर कवर और नेम स्ट ट्रैक्टर से लेकर साल भर की स्टेशनरी। उसके बाद एक्ट लाइफटी का सामान भी खरीदा जाता है। स्कूल एनसीईआरटी की फीस इसलिए नहीं देनी पड़ती क्योंकि उसमें वह मार्जिन नहीं होता जो प्राइवेट पब्लिशर्स से मिलता है। ऐसा नहीं है कि एनसीईआरटी अपना एक सरकुलर निकालता है जिसमें स्कूलों को अपनी जरूरत बतानी होती है कि हमें इस क्लास में ढेर सारी किताबें चाहिए। लेकिन यह विनोबा कि न एनसीईआरटी रिक्व रीज़ लर्निंग मांगता है ,  न स्कूल वाले कोई देते हैं।   सीधा जवाब है कि राज्य या केंद्र सरकार इसकी प्रकृति में दखल नहीं देती।

 

अब आप समझ रहे हैं कि कैसे ये मजबूरी शब्द अभ परेशानियों का स्कूल में दाख परेशानियों के पहले दिन से पीछा करने लगता है।   इन किताबों से न सिर्फ स्कूलों का मोटा कमीशन बनता है ,  बल्कि बल्क फ़ीस कम सैलरी में परेशानी वाले/वाली शिक्षकों को परेशानी में  भी आसानी से डाला जाता है। पुस्तक से नोट्स हर किसी को नहीं होता है। मसलन दोहा है तो उसका सही भावार्थ उसी शिक्षक को पता होगा जिसे ट्यूशन से पढ़ा जाता है ,  जो उस प्रेरणा से आया है। लेकिन अंग्रेजी क्रेज वाले स्कूलों में वो शिक्षक बिना मदद के वो दोहा बच्चों को कैसे पढ़ाएंगी।  इसलिए निजी प्रकाशन की पुस्तकें एक तरह की गाइड और कुंजी के रूप में है। यहाँ दोहे का अर्थ भी दे दिया गया है। इससे जिन शिक्षकों को ज्ञान नहीं है ,  वे भी इसे एक्सप्लेन कर सकते हैं। अब पहले की तरह हिंदी के स्पेशल नोट्स नहीं बने।

 

किसी भी माता-पिता के लिए ,  यह एक ऐसा पुराना जख्म है ,  जिसे हर साल कुरेदा जाना तय है। पता नहीं सरकारें क्यों इस महामारी जैसे मुद्दे पर ,  अभियान चलाकर ऐसे स्कूलों की मान्यता रद्द नहीं करती। सरकार भले ही नई शिक्षा नीति से सभी परिवर्तन का ढिंढोरा पीट रही हो ,  लेकिन इन स्कूलों की निगरानी का कोई तंत्र नहीं है। स्कूल संचालक स्वयं अपना सिलेबस तय करके अपनी सुविधा के अनुसार प्रकाशकों से पुस्तकें छपवाकर उनकी कीमत तय करके उससे बड़ा बदलाव कमा रहे हैं। सरकारी स्कूलों की एनसीआरटी की पुस्तकें बहुत ही बेहतरीन हैं, लेकिन बड़ी ही दुःख की बात है कि इन पुस्तकों की गतिविधि से संबंधित व्यावहारिक प्रश्नों को पढ़ाना बिल्कुल भी आसान नहीं है और बच्चों की पुस्तकें कमजोर ही छूट रही हैं। हिंदी और अंग्रेजी की किताबों में बहुत कुछ है पर लगाव के साथ-साथ बहुत कमी है। सभी स्कूलों में एनसीईआरटी की किताब ही लगाना चाहिए इसके लिए कठोर कानून बनाए जाएं।

 

आजकल स्कूल में पढ़ाई का बढ़िया धंधा बन गया है जहां शिक्षा के अलावा सब कुछ मिलता है। जैसे भू माफिया थे ये लोग शिक्षा के माफिया हैं। इतनी सारी ड्रेसिंग जैसे किसी उपन्यास की कीमत हो। इस देश में आधे से ज्यादा प्राइवेट स्कूल के नेता और अभिनेता हैं इसलिए इन पर कोई कदा एक्सन नहीं होता ,  और ये लूट चलती ही रहती है। नियम तो पहले से ही बने हुए हैं लेकिन माता-पिता को जो गलत हो रहा है उसके खिलाफ एकजुट आवाज उठानी होगी। सरकार पर हर जिम्मेदारी डालना उचित नहीं है ,  नियम बहुत है और भ्रष्टाचार के कारण नियम की धज्जियां उड़ रही हैं। इसलिए आवाज उठाने की जिम्मेदारी माता-पिता की है। आज एक माता-पिता के लिए उसके बच्चे की पढ़ाई सबसे बड़ी समस्या है। लेकिन इसके लिए वह गार्जियन ज्यादा जिम्मेदार है जो अपने बच्चों को महंगे बाजारों में रखते हैं। और फुला शान चलाने के लिए मजबूर है। शान के चक्कर में मिडिल क्लास वाले अपर मिडिल क्लास वाले परिवार परेशान होते हैं। क्या हमारी दादी ने इन्हें ब्रेक करने की छूट दी है। इसमें भी कोई चंदा है।

 


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- डो सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,आकाशवाणी एवं टीवी दंडकारिणी सदस्य

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