संत कबीर जयंती पर विशेष-



मैं भी हो गई लाल......
“ढाई आखर प्रेम के...” उद्घोषक महान मानवतावादी संत कबीर का जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ था। जब समाज में जातिवाद,संप्रदायवाद सामंतशाही, कठमुल्लापन, बाह्य आडंबर, धार्मिक विषमताओं व कुरीतियों का बोलबाला था। ऐसी स्थिति में भोली-भाली जनता यह समझ में असमर्थ थी कि वह क्या करे? उनकी स्थिति बिन नाविक नाव जैसी हो गई थी। उन्हें एक ऐसे नाविक आवश्यकता थी जो उनके जीवन नौका की पतवार संभाल सके।
संत कबीर ने अंधकार के गर्त में डूबी जनता के समक्ष समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, संप्रदायों एवं धाराओं का समन्वित रूप स्थापित किया। संत कबीर स्वयं भी एक समन्वित व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सबसे बड़ा धर्म समन्वय सामाजिक एकता है। इसी प्रवृत्ति के कारण वे सांप्रदायिक एकता के प्रतीक कहलाते हैं। संत कबीर ने समकालीन समाज में व्याप्त नाना प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियों, संप्रदायों,जातियों और विचार पद्धतियों में समन्वय स्थापित करने का कार्य किया।
संत कबीर ने अपनी “बानी” के माध्यम से एक नया संदेश दिया। जो आज भी मानवता के कल्याण के पथ को आलोकित करने का कार्य करता है। उनके समकालीन संतों व ज्ञानियों में ईश्वर के सगुण और निर्गुण रूपों को लेकर भक्ति व दर्शन दोनों क्षेत्रों में व्यापक विवाद व्याप्त था। उन्होंने इस विवाद का अंत करने के लिए कहा-
“एक ही ज्योति सकल घट व्यापक दूजा तत्व न कोई।
कहै कबीर सुनो रे संतो भटक मरै जनि कोई।।”
हिंदू तथा मुस्लिम के विवाद को समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि-
"मुझको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में।
ना मै मंदिर ना मै मसजिद ना काबे कैलाश में।।"
ईश्वर-अल्लाह को मंदिर-मस्जिद में ढूंढने की प्रवृत्ति को नकारते हुए उन्होंने लोगों को समझाया कि ईश्वर जिस मंदिर में रहते हैं। वह तुम्हारे भीतर है (देवल माहे देहुरी...) आवश्यकता सकता है उसे जानने समझने की।
संत कबीर एक ऐसी शख्सियत के स्वामी थे,जिसने अपनी प्रखर बौद्धिक क्षमता से जड़वत समाज को झकझोर कर रख दिया।उनका क्रांति दर्शन आध्यात्मिक लक्ष्य के साथ-साथ भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक था। उनके बताए मार्ग का अनुसरण करने से व्यक्ति समाज से दूर नहीं जाता वरन आपसी राग-द्वेष को समाप्त करने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने एक ऐसी कार्य संस्कृति का प्रतिपादन किया, जो परिवार के भरण-पोषण के लिए उतना ही महत्वपूर्ण था, जितना आत्मा को परमात्मा में लीन करना। भक्ति, योग और कर्म की त्रिवेणी ने लोक जीवन में व्याप्त निराशा के घटाटोप अंधकार को तहस-नहस करते हुए आशा का संचार किया था। यह उन्हीं के बूते की बात थी, जिसमें मरण को वरण करने में आनंदानुभूति की बात कही-
“जा मरने से सब जग डरे, मेरे मन आनंद।
कब मरिहौ कब पाइहौ, पूरन परमानंद।।”
साहित्य के क्षेत्र में भाषा,छंद,रस अलंकार विधान व सामग्री आदि की दृष्टि से भी संत कबीर ने अनुपम समन्वय स्थापित किया है। उस समय साहित्य में अनेक भाषाएं विद्यमान थी।उन्होंने सभी का अद्भुत प्रयोग किया। इस प्रकार अपनी भक्ति,साधना-संवेदना तथा प्रेम पीर की अतिशयता के बल पर एक अपूर्व एवं दिव्य समाज के निर्माण का संदेश दिया। जिससे 'राम-रहीम' के सुख-फटे हृदय को सरस व समरस बनाया तथा मंदिर-मस्जिद, काबा-कैलाश को व्यर्थ सिद्ध करते हुए “लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल लाली देखन मैं भी हो गई लाल” मे लाल हो जाने का संदेश दिया है।
-संत कबीर की निर्वाण स्थली मगहर
(संत कबीर नगर) से नवनीत मिश्र


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