कविता - इन्तेजार

कविता - इन्तेजार

 

नीरज त्यागी

 

तस्वीरो ने संजोयी है , बहुत सी आवाजे अपने अंदर,

लेकिन हकीकत ने आज मौन का कफन ओढ़ रखा है।

 

आँगन जो लीपा जाता था , प्यार की मिट्टी से कभी,

झूठे,दिखावटी संगमरमर के पत्थरों से ढक रखा है।

 

शाम की चाय की भीनी खुशबू आज भी वैसी ही है,

लेकिन  अब  सगे  भाइयो  ने  घर  को  बाट  रखा  है।

 

ना जाने क्या पाने की चाहत है आजकल इंसानो को,

सुबह से शाम तक सभी ने भाग-दौड़ मचा रखा है।

 

बूढ़ी हो गई आँखे आज भी रहती है बच्चो के इन्तेजार में,

पर बच्चो ने घर के अंदर अपना अलग घर बना रखा है।।

 

 

 

 

 

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