4बी मूवमेंट हाल ही में फिर से चर्चा में आया है वैसे तो इसकी शुरुआत साउथ
कोरिया में महिला शोषण व लैंगिक असमानता को लेकर 2010 में हुई थी ।
किन्तु हाल ही में अमरीकी चुनाव में ट्रम्प की जीत के बाद फिर से यह
आंदोलन अमरीका में नारीवादियों द्वारा ट्रम्प सरकार द्वारा महिला
गर्भपात नियमो में बदलाव के विरोध के रूप में सोशल मीडिया पर शुरू किया
गया है। 4बी का अर्थ 4 "नोस" से है जिसमे महिलाये लिंग आधारित सामाजिक
अपेक्षाओं को पूरा करने से मना करती है जैसे - पुरुषों के साथ डेटिंग,
शादी , सेक्स व प्रजनन । यह आंदोलन लैंगिक भेदभाव व पितृसत्तात्मक समाज
का विरोध करने के लिए किया गया । इसमे महिलाओ की न्यायपूर्ण समाज की मांग
रही है , एक ऐसे समाज की मांग पर जोर दिया जाता है जहां महिलाओं को हीन न
समझा जाये दोयम दर्जे का व्यवहार न किया जाए और उनसे केवल प्रजनन संबंधी
अपेक्षा न रखी जाए बल्कि एक मनुष्य के रूप में उनकी स्वतंत्रता को बाधित न
कर समाज मे उनके लिए सम्मानजनक व सुरक्षित वातावरण को प्रोत्साहित किया
जाए।
अगर महिला अधिकारों की या महिलाओं की स्वतंत्रता की बात करे तो
कुछ तथ्यों पर गौर करना जरूरी है जैसे भारत मे एनसीआरबी का डेटा कहता है
कि हर साल महिलाओ के खिलाफ विभिन्न प्रकार की हिंसा में बढ़ोतरी देखी गयी है
चाहे वह रेप हो या घरेलू हिंसा इसमे 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गयी है।यह
तथ्य सोचने पर विवश करते है कि क्या सचमुच हमारा समाज 21वी सदी का आधुनिक
समाज है जहाँ आज भी रेप कल्चर , बाल विवाह , ऑनर किलिंग , भ्रूण हत्या जैसी
बातें रोज़ सुनने व देखने को मिलती है।इसी के साथ विचारणीय यह भी है कि
क्या ये आंदोलन नए है, क्या कुछ भी इनमें नया है -पितृसत्तात्मक सोच का
शोषण का तरीका बदला है पर कार्य आज भी वही है जो सदियों पहले था ।
इसलिये महिला सुरक्षा के लिए कई कई दिवस मनाये जाते है जैसे कि आज 25
नवंबर को अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस के रूप में मनाया जाता है
ऐसा कोई दिवस किसी अन्य लिंग के लिए नही मनाया जाता । कहने को तो कहा जाता
है कि 21वी सदी की महिलाएं बहुत आगे है स्वतंत्र है श्रम में योगदान दे
रही है।रोज़गार के अवसर ,आरक्षण सब व्यवस्थाएं उनके लिए है किंतु क्या हम एक
समतामूलक समाज उनके लिए बना पाए है ?क्या समाजिक ताने बाने से निकलकर जीवन
को सुरक्षित व स्वंत्रत रूप से महिलाएं जी पा रही है क्या ऐसे समाज का
निर्माण हम कर पाए है? ये बहुत ही विचारणीय प्रश्न है , आज अंतरराष्ट्रीय
महिला हिंसा उन्मूलन दिवस पर हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे कि किस प्रकार
आधुनिक समाज मे महिलाये इतने संविधानिक अधिकारो के बावजूद भी हाशिये पर
है और शोषित वर्ग का हिस्सा है।
वैसे तो महिलाओं के
प्रति हिंसा बहुत घिसा पिटा विषय बन चुका है क्योंकि किसी भी काल
परिस्थिति, देश- समाज को हम उठा कर देखे तो महिलाओं का सीमित उत्थान और
अधिक शोषण ही देखने को मिलता है । पौराणिक काल से देखे तो बर्बर आतताइयों
ने नारी का शोषण किया क्रय -विक्रय किया, वस्तु की तरह भोग तुल्य समझा
।मध्यकाल में भी महिलाओं को बाल विवाह बहु विवाह अशिक्षा , पर्दा प्रथा
जैसी समस्याओं से जूझना पड़ा। आज के हालात पहले की तुलना में केवल स्वरूप
में ही बदले है । आज भी हिंसा तो है पर उसका तरीका सिर्फ शारीरिक न होकर
मानसिक , आर्थिक ,भावनात्मक व लैंगिक हो गया है । मुझे याद आता है कि एक
बार किसी इंटरव्यू में प्रसिद्ध अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा से पूछा गया था
कि क्या आप नारीवादी है और उन्होंने बढ़ा ही सुंदर तरीके से नारीवाद को
परिभाषित किया , कि नारीवादी होने का मतलब पुरुषो की तरह सभी क्षेत्रों
में बराबर होना या उनकी शारीरिक बराबरी करना नही है किंतु यह एक महिला होने
के नाते जैसा महिलायों को शारीरिक रूप से बनाया गया है उसके आधार पर उनके
अधिकारों को न छीनना व उनको मानसिक बराबरी पर रखने से है । कोई महिला अगर
चाहे तो परिवार के साथ नौकरी भी करे सके व उच्चस्थ पदों पर जाए तो उसके
साथ दोयम दर्जे का व्यवहार न हो उसे वो सब समानताये दी जाए जो एक पुरुष को
दी जाती है।चाहे वो शैक्षणिक समानता हो या परवरिश की समानता हो या फिर
कार्यस्थल पर समानता हो , एक पुरुष से जब यह नही पूछा जाता कि आप इतने उच्च
पद पर है,अपना घर और काम कैसे सम्भालते है तो ये महिलाओ से भी न पूछा जाए न
ही उनको इस बात के लिए नीचा दिखाया जाए कि वह परिवार पर ध्यान नही दे रही
क्योंकि परिवार चलना संभालना सिर्फ महिला तक सीमित नही होना चाहिये।
सही
मायने में असमानता का व्यवहार पितृसत्तात्मक सोच के कारण आज भी हमारे
समाज मे गहरे रूप में बैठा हुआ है स्वरूप बदला है पर सोच आज भी वही है आज
भी लड़की के जन्म को खुशी के रूप में नही देखा जाता ,उनको पढ़ाया भी जाता
है तो ये कहकर की हमने पढ़ने की आज़ादी दी है , विवाह भी परिवार व समाज की
इज़्ज़त को देखकर किएजाते है अथार्त वहां भी सहमति जैसा कुछ नही है , फिर
रही सही कसर दहेज लेने जैसे लोग पूरी कर देते है
।रोज़गार के अवसर दिए
जाते है तो क्या , वहां से आगे बढ़ने के अवसर बन्द कर दिए जाते है पहले तो
परिवार की बंदिशे और दूसरे कार्यस्थल पर शोषण , बार बार खुद को साबित करने
का दबाव , बाहर व कार्यस्थल पर मानसिक प्रताड़ना ,भद्दे मज़ाक करना
टिप्पणियां करना आम बातें है। घरेलू महिलाओ के लिए परिवार सम्भालते हुए
नौकरी करना बहुत मुश्किल कर दिया जाता है।काम काज़ी लड़की है तो उसपर काम के
अलावा सैकड़ो दबाव बनाये जाते है ,जैसे विवाह में समस्या उत्पन्न करना
अगर विवाह किसी बाहर शहर में हो रहा है तो अपेक्षा लड़की से ही कि जाती है
कि वो अपनी नौकरी को दरकिनार कर परिवार सम्भाले , अगर लड़की शादी कर लेती है
तो घर व परिवार का अतिरिक्त बोझ भी उसके सर आता है । उससे निश्चित समय पर
आने जाने का दबाव बनाया जाता है रहन सहन को लेकर सीमायें बनाई जाती है।
अगर वो माता है तो उसको हर बार परिवार से ज्यादा अपने काम को तरजीह देने का
ताना कसा जाता है । यह अफसोस कि बात कही जाएगी कि हमारे समाज मे पितृसत्ता
इतनी गहरी है कि पति पत्नी में अगर परिवार संभालने की बात आती है तो ये
मान कर चला जाता है कि यह काम महिला या पत्नी का ही है । पति घर के काम मे
हाथ बंटाने या अपनी पत्नी की भावनात्मक आवश्यकता से परिचित ही नही होना
चाहता ।
बहरहाल ,समय के साथ महिलाओ को शिक्षा रोजगार में बेहतर
अवसर तो मिले जैसे कुछ सरकारी पहलें जैसे बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ , सुकन्या
समृद्धि योजना , स्कालरशिप योजनाए , उसके साथ ही रोज़गार में आरक्षण
व्यवस्था , कार्यस्थल पर सुरक्षा के लिए विशाखा गाइडलाइन्स ,मातृत्व अवकाश,
निर्भय फण्ड निर्माण जैसी योजनाए व कानूनी सहायतायें जैसे घरेलू हिंसा
अधिनियम 2005 , हिन्दू विवाह अधिनियम, बाल विवाह रोकथाम अधिनियम , लेकिन
यह सभी कानून योजनाए तब तक प्रभावी नही हो सकेंगी जब तक एक समाज के रूप में
हम नारी को सम्मान व समानता नही दे देते हमारा सामाजिक ताना बाना पुरुष
प्रधान है और महिलाओ को निर्णय लेने से रोकता है उनमे हीन भावना बचपन से
डाल दी जाती है । नारी सशक्तिकरण के लिए सबसे अधिक जरूरी है महिलाओ का
शिक्षित होना अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना । आजकल यह तर्क भी दिया
जाता है कि महिलाएं खुद को मिली कानूनी सुरक्षा का गलत लाभ उठाती है पुरुष
शोषण की भी बात की जाती है कि दहेज के नाम पर धारा 498 ए का गलत उपयोग किया
जाता है । यह बातें कुछ हद तक सही कही जा सकती है लेकिन सोचनीय विषय यह भी
है कि सामाजिक परिवेश कुछ इस तरह का है कि जिसको इन कानूनों की आवश्यकता
है वे इनसे डरती है पारिवारिक दबाव के चलते वे कानूनी पचड़ों में नही पड़ती
इतने सब कानूनों के बाबजूद भी महिलाओ के प्रति हिंसा उत्पीडन और शोषण में
गरावट नही आई है।
हमे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सभी समस्याओं का कानूनी
उपाय नही किया जा सकता । कुछ अपराध हमारे सामाजिक परिवेश की भी देन होते है
अगर परिवार में बेटी का जन्म भी अच्छा माना जाए उसे भी समान शिक्षा के
अधिकार अवसर दिए जाएं और कार्यस्थल परिवार या समाज मे एक मनुष्य की तरह
सम्मान और स्वतंत्रता दी जाए तो शायद ऐसे कानूनों की या दिवस मनाने की
आवश्यकता ही न पड़े । इसके साथ ही लच्चर कानून व्यवस्था में भी सुधार की
बहुत दरकार है क्योंकि महिला हिंसा में सबसे ज्यादा रेप केस देखने को
मिलते जिनमे आज भी पीड़ित व उसका परिवार दोहरी पीड़ा झेलता है ।और न्याय के
लिए सालो तक कोर्ट के चक्कर काटता है । उसके बाद भी आधा अधूरा न्याय
प्राप्त होता है ऐसे कितने ही लंबित केस है जिनसे कई लोगो के जीवन बर्बाद
हुए है ।अगर इन व्यवस्थाओ को दुरुस्त किया जाए तो निश्चित ही महिलाओ के लिए
एक सुरक्षित वातावरण बनाया जा सकता है जो भविष्य में एक समतामूलक और सही
मायने में स्वतंत्र सुरक्षित समाज की स्थापना में सहायक होगा।
एडवोकेट रितेंद्र कंवर शेखावत राजस्थान हाई कोर्ट |
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